चोटी की पकड़–107
"हाँ।"
"मगर कांटा निकालने के लिए मिलेंगी।"
प्रभाकर कुछ न बोले। एजाज का स्वभाव उन्हें पसंद है। रानी साहिबा कैसी हैं, देखना चाहते हैं।
उनका काम केवल मर्दों के हाथ से ज्यादा औरतों के साथ से बढ़ेगा। स्वदेशी का, देशप्रेम का जितना प्रचार होगा, देशवासियों का कल्याण है।
"रानी साहिबा पढ़ी-लिखी हैं?"
"जी हाँ।"
"सुंदरी भी हैं?"
मुन्ना मुस्करायी। कहा, "हाँ, बहुत।"
"राजा साहब को व्यसन होगा। गाती भी हैं?"
"जी हाँ।"
"काँटा निकल जाएगा। राजा साहब जिस रास्ते के पथिक हैं, रानी साहिबा भी उसकी होंगी, तो मेल स्वाभाविक है।"
"वह कौन-सा रास्ता? -क्या हम लोग उस रास्ते आपके पीछे चल सकते हैं?"
"पहले तुम्हीं लोगों का काम है। यों फायदा नहीं कि जमींदारी जमींदार की रहे : मगर यों है कि तुम अपने आदमियों के साथ रहो, अपना फायदा अपने हाथों उठाओ।
इसमें दूसरे तुमको बहका सकते हैं, बहकाते होंगे। बाजी हाथ आने पर, हम खुद जीने की सूरत निकाल लेंगे। अच्छा, बताओ, यहाँ कोई औरत रहती थी जो लापता है?"
मुन्ना घबरायी। प्रभाकर आँखें गड़ाए थे। झूठ नहीं निकली, कहा, "जी, हाँ।"
"वह कौन है?"
"वह कुमारीजी की फूफी-सास हैं। आपको मालूम है, वे कहाँ हैं?"
"हम नहीं कह सकते। मगर बचा दे सकते हैं। पुलिस के हाथ बुरा हाल होगा।"
मुन्ना ने पैर पकड़ लिए। कहा, "आप बचा सकते हैं। आपका काम करूँगी।"
प्रभाकर मुस्कराते रहे। कहा, "अच्छा नहाते हैं, शाम को आना। घबराना मत। हमारा काम, तुम्हारा काम है। अब चलो।"
मुन्ना खुश होकर चली। जान पड़ा, भगवान ने बचा लिया।
प्रभाकर नहाने लगे।